Sunday, August 16, 2015

कार्ल मार्क्स - दर्शन के बारे में एक उद्धरण (Karl Marx - A Quotation On Philosophy)


"अपनी प्रकृति के अनुरूप आचरण करते हुए दर्शन ने पुरोहितों के संन्यासी-सुलभ वस्त्रों की अदला-बदली अख़बारों के हलके पारम्परिक परिधान से करने के लिए कभी पहल नहीं की है। बरहाल, दार्शनिक कुकुरमुत्तों की तरह तो होते नहीं जो यूँ ही ज़मीन फोड़कर निकल आयें, वे अपने युग, अपनी जाति की उपज होते हैं, जिनके अत्यन्त सूक्ष्म, मूल्यवान तथा अदृश्य रस दर्शन के विचारों मे प्रवाहित होते हैं। जो चेतना श्रमिकों के हाथों के माध्यम से रेलवे का निर्माण करती है वही दार्शनिकों के मस्तिष्कों में दार्शनिक प्रणालियाँ भी निर्मित करती है। विश्व से परे दर्शन का कोई अस्तित्व नहीं होता, ठीक वैसे ही जैसे मनुष्य के परे मस्तिष्क का अस्तित्व नहीं होता...। किन्तु दर्शन वस्तुत: ज़मीन पर अपने पैर रखकर खड़ा होने से पहले मस्तिष्क के माध्यम से अस्तित्वमान होता है, जबकि मानवीय कार्य-व्यापार के कई क्षेत्र ऐसे हैं जिनके पैर ज़मीन पर काफ़ी गहरे जमें हुए हैं तथा जो उस समय भी अपने हाथों से इस संसार के फल तोड़ने लग जाते हैं जब उन्हें यह गुमान तक नहीं होता कि सिर भी इस संसार का हिस्सा है, कि या संसार भी सिर का ही संसार है।
"चूँकि हर सच्चा दर्शन अपने युग का बौद्धिक सारतत्व होता है इसलिए जब दर्शन अपने समय की वास्तविक दुनिया के साथ न केवल आन्तरिक रूप से अपनी अन्तर्वस्तु के माध्यम से, बल्कि बाह्य रूप से अपने रूप के माध्यम से भी सम्पर्क में आता है तथा उसके साथ अन्तर्क्रिया करता है तो युग भी बोलने लगता है। तब दर्शन अन्य विश्ष्ट प्रणालियों के सम्बन्ध में दर्शन बन जाता है, समकालीन विश्व का दर्शन बन जाता है।"
(P.35-36, धर्म के बारे में – कार्ल मार्क्स)

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