Saturday, June 28, 2014

अग्नि-दीक्षा (How The Steel Was Tempered) उपन्यास के लेखक और क्रान्तिकारी निकोलाई आस्त्रोविश्की की पुस्तक ‘जय जीवन’ के कुछ हिस्से


सोवियत यूनियन में महान समाजवादी निर्माण के दौर में आस्त्रोविश्की अथक मेहनत करते हुये अपनी बीमारी के कारण विस्तर से उठ भी नहीं सकते थे उस समय कुछ और न कर पाने की स्थिति में अग्नि-दीक्षा उपन्यास लिख रहे है। आस्त्रोविश्की (29 Sep 1904 – 22 Dec 1936) (Nikolai Astrovishki) के शब्दों में,
यदि इन्सान के पास-पड़ोस की जिन्द़गी भयावनी और उदास हो, तो वह अपने निजी सुख की शरण लेता है। उसकी खुशी सारी की सारी अपने परिवार में केन्द्रित रहती है – अर्थात् केवल व्यक्तिगत रुचियों के घेरे में रहती है। जब ऐसा हो, तो कोई भी निजी दुर्भाग्य (जैसे बीमारी, नौकरी छुट जाना इत्यादि) उसके जीवन में विषम संकट पैदा कर देता है। उस आदमी के लिए जीवन के कोई लक्ष्य नहीं रहता। वह एक मोमबत्ती की तरह बुझ जाता है। उसके सामने कोई लक्ष्य नहीं जिसके लिये वह प्रयास करे, क्योंकि उसके लक्ष्य केवल निजी जिन्द़गी तक सीमित होते हैं। उसके बाहर, उसके घर की चारदीवारी के बाहर, एक क्रूर जगत् बस रहा होता है। जिसमें सभी दुश्मन हैं। पूँजीवाद जान-बूझकर शत्रुता और विरोधाभाव का पोषण करता है। वह भयाकुल रहता है कि कहीं काम करने वाले लोक एकता न कर लें।
 मैं अपने आस-पास के लोगों को देखता हूँ – बैलों की तरह हस्ट-पुस्ट मगर मछलियों की तरह उनकी रगों में ठण्डा खून बहता है – निद्राग्रस्त, उदासीन, शिथिल, ऊबे हुए। उनकी बातों से कब्र की मिट्टी की बू आती है। मैं उनसे घ्रणा करता हूँ। मैं समझ नहीं सकता कि किस तरह स्वस्थ और तगड़े लोग, आज के उत्तेजनापूर्ण ज़माने में ऊब सकते हैं।...
कई लोग हैं जो केवल जिन्दाभर रहने से ही सन्तुष्ट हैं, केवल यही चाहते हैं कि ज़्यादा से ज़्यादा देर तक जिन्दगी से चिपके रहें, और अपनी यथार्थ स्थिति पर आंखें मूँदे रहें।
कुछ वर्ष पहले एसी स्थिति को सहन करने मेरे लिये आसान था। उस समय मैं भी उसे उसी तरह झेलता जैसे अधिकांश लोग झेलते हैं। पर अब स्थिति बदल गई है।
कुछ लोग अपने रोग का इलाज आराम द्वारा करते हैं, और कुछ लोग काम द्वारा।
“Man's dearest possession is life. It is given to him but once, and he must live it so as to feel no torturing regrets for wasted years, never know the burning shame of a mean and petty past; so live that, dying he might say: all my life, all my strength were given to the finest cause in all the world- the fight for the Liberation of Mankind.”

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