Tuesday, May 20, 2014

मुक्तिबोध - मनुष्यता के संदर्भ के बिना यदि ज्ञान, इच्छा तथा क्रिया में सामंजस्य लक्ष्यहीन सामंजस्य है.

"मनुष्यता के संदर्भ के बिना यदि ज्ञान, इच्छा तथा क्रिया में सामंजस्य स्थापित भी हो
 तो वह लक्ष्यहीन सामंजस्य है."
- गजानन माधव मुक्तिबोध (November 13, 1917 – September 11, 1964) 
यदि व्यक्ति में मनुष्यता है तो, निश्चय ही वह अपने जीवन में प्रप्त वास्तविक मूर्त आदर्शों और लक्ष्यों की तरफ़ बढ़ेगा, उसे बढ़ना पड़ेगा। अपने जीवन की भीतरी तथा बाहरी प्रेरणाएँ उसे लक्ष्योन्मुख बनायेंगी ही, उन आदर्शों की और ठेलेंगी। वह अपने जीवन के अनुभवों का वैज्ञानिक अवलेकन करता रहेगा, और अपने तथा दूसरों के अनुभवों से वह सीखेगा ही, उसे सीखना पड़ेगा। किन्तु - और यह सबसे बड़ा किन्तु है - आदमीं में इतनी मनुष्यता रहती ही नहीं। साथ ही उसका आभाव भी कभी नहीं होता। किसी में वह कम होती है, किसी में में ज़्यादा, किसी में बहुत ज़्यादा। जिसमें जितनी अधिक मनुष्यता होती है, उसका वास्तविक सामाजिक संघर्ष भी उसे अधिक से अधिक सिखलाता है, और उसे विकास के नये रास्ते बतलाता है। जिस प्रकार वैज्ञानिक दृष्टिकोंण के कारण हमारी समझ बढ़ती है, उसी प्रकार हमारी भीतरी मनुष्यता के कारण हमारा वैज्ञानिक दृष्टिकोंण भी लक्ष्ययुक्त आदर्शमय होता है। फलतः, उस वैज्ञानिक दृष्टिकोण का एक जीवन-व्यापी औचित्य सिद्ध होता है। यद दृष्टिकोंण निश्चय ही यान्त्रिक नहीं है। यान्त्रिकता परस्पर सम्बन्धों को, तथा जीवन प्रक्रियाओं के भीतरी गति श्रोत को, नहीं देखती, विकास को नहीं देखती। वैज्ञानिक दृष्टिकोण, वस्तुतः, यथार्थवादी दृष्टिकोण है, जो अपनी लक्ष्योन्मुखता के कारण ही तथ्य-संग्रह करता है। जिसकी जितनी बड़ी मनुष्यता होगी, निश्चय ही वह मनुष्य-जीवन के बारे में अधिक-से-अधिक ज्ञान रखेगा तथा उसे नवीन बनाता रहेगा।
मुश्किल यह है कि यह मनुष्यता अपनी लक्ष्य-प्रप्ति के लिये जिन संघर्षों की और व्यक्ति को ले जाना चाहती है, उस तरफ़ बहुत बार वह मुड़ता ही नहीं। और अगर मुड़ता है, तो गिरता-पड़ता। फलतः ज्ञान, इच्छा और क्रिया का सामंजस्य स्थापित नहीं हो पाता, न वह हो सकता है। मनुष्यता के संदर्भ के बिना यदि ज्ञान, इच्छा तथा क्रिया में सामंजस्य स्थापित भी हो, तो वह लक्ष्यहीन सामंजस्य है। रीता सारसम्य है। प्रत्येक काल में मनुष्यता के साम्मुख, अपने उद्धार के कुछ विशेष लक्ष्य रहे हैं। उन लक्ष्यों की और जिस आदमी की भतरी मनुष्यता व्यावहारित सामाजिक क्षेत्र में जैसा और जितना संघर्ष करती है, उसी के अनुसार वह मनुष्य अपना अन्तर्बाह्य सन्तुलन और सामंजस्य स्थापित कर सकता है। निश्चय ही, स्वभाव-भेदानुसार मनुष्य के विभिन्न पक्षों का संयोजन तथा संतुलन भी भिन्न होगा। मनुष्यता के संघर्ष में पड़े हुए एक कलाकार का आन्तरिक संतुलन एक नेता के भीतरी सन्तुलन से न्श्चय ही भिन्न होगा। किन्तु आन्तरिक सामंजस्य लक्ष्यहीन भी हो सकता है। उदाहरणतः, महाबलशाली स्वेच्छाचारी शासक अपने ज्ञान तथा इच्छानुसार, जनता-विरोधी कार्य भी कर सकता है।  उसमें विघटन नहीं होता। विघटन की क्रिया तो उन लोगों में सर्वाधिक होती है जो न पूरे लक्ष्यवान होते हैं, न गत-लक्ष्य; जो अधकचरे होते हैं और प्रवृत्तियों के वशीभूत होकर इधर-उधर भागते फिरते हैं।
सामंजस्य का प्रश्न मनुष्यता के सम्मुख उपस्थित अपने उद्धार के प्रधान लक्ष्यों के लिये चलनेवाले संघर्ष का प्रश्न है। वह जितना आत्मगत प्रश्न है, उससे कहीं ज्यादा वह सामाजिक प्रश्न है।

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