Thursday, December 19, 2013

विशेषाधिकारों के हनन और मूल अधिकारों के हनन पर कुछ ज़रूरी सवाल "?"

"हर युग के शासक विचार शासक वर्ग के विचार होते हैं, यानी जो वर्ग समाज की शासक भौतिक शक्ति है, वही समाज की शासक बौद्धिक शक्ति भी होता है। जिस वर्ग के पास भौतिक उत्पादन के साधन होते हैं, वही मानसिक उत्पादन के साधनों पर भी नियन्त्रण रखता है, जिसके नतीजे के तौर पर, आम तौर पर कहें तो वे लोग जिनके पास मानसिक उत्पादन के साधन नहीं होते हैं, वेशासक वर्ग के अधीन हो जाते हैं।" -कार्ल मार्क्स
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आज कई दिनों से कई अख़बारों में एक मुख्य खबर आ रही है कि अमेरिका में एक भारतीय राजदूत के साथ किये गये अपमान के जबाब में कड़ी कार्यवाही की माँग की जा रही है। ऐसा लग रहा है कि पूरा देश इस अपमान का बदला लेना चाहता है। खैर दूसरे देश में विशेषाधिकार प्राप्त देश के किसी नागरिक के अपमान का सवाल उठाया जा सकता है, जिसकी चर्चा विशेष लोग कर ही रहे हैं। लेकिन इस घटना का आम लोगों के सामने अपना एक अलग महत्व भी है जिसकी चर्चा हमें करनें की आवश्यकता है।
बुर्जुआ समाज में आम लोगों को यह अहसास दिलाने का प्रयास किया जाता है कि पूरी दुनिया के पूँजीवादी राष्ट्रों के बीच कुछ कानून बने हैं, और यह यह अत्यन्त स्वाभाविक है कि एसे में समाज के कुछ लोगों को विशेषाधिकार प्राप्त हैं। और यदि इन विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के विशेष अधिकारों पर किसी भी रूप में थोड़ी भी गड़बड़ होती है, तो आम लोगों को, जिन्हें कोई विशेष अधिकार नहीं हैं, जो हर दिन जद्दोजहद करने के बाद भी आराम से जीने के अधिकार से वंचित हैं, उन्हें भी इन विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के विशेष अधिकारों की रक्षा के लिये प्रोटेस्ट करना चाहिये।
कई लोग कहते हैं कि यदि किसी दूसरे देश द्वारा देश के एक विशेष व्यक्ति के अधिकारों का हनन होता है तो यह पूरे देश का अपमान है, और पूरे देश में सबसे बड़ी संख्या आम लोगों की होती है। परन्तु फिर एक बहुत बड़ा सवाल खड़ा हो जाता है, जिसकी तरफ विशेषाधिकारों के इन्हीं रक्षकों का कोई ध्यान नहीं जाता, कि कई विदेशी कम्पनियाँ हमारे देश में ही आकर यहाँ के देशी विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के साध मिलकर यहाँ के आम लोगों से गुलामों की तरह काम लेती हैं, और कई क़ानूनों का उल्लंघन करती हैं, जो कि आम लोगों के लिये देश में ही बने होते हैं। लेकिन फिर लोगों को यह अहसास दिलाया जाता है कि यदि विदेशी कम्पनियाँ देश में आकर आम आदमी को निचोड़ भी लें, तब भी कोई खास चिन्ता की बात नहीं है। क्योंकि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में मुनाफ़ा कमाने का सभी को अधिकार मिला हुआ है। दूसरू ओर यदि एक विशेषाधिकार प्राप्त इंसान को विदेश में उसके अपराध की भी सजा दे दी जाए तो विशेषाधिकार प्राप्त लोग ऐसा दिखाने की कोशिश करते हैं कि इस अपमान के विरोध में उन आम लोगों को भी अपनी आवाज़ उठानी चाहिये जो अपने ही देश में कई अपमान झेलते हुये जी रहे हैं। जैसे बेरोज़गारी, गरीबी, रोज़गार की अनिश्चितता के कारण किसी भी शर्त पर काम करने की मज़बूरी, खुद देशी प्रशासन द्वारा कहीं भी और कभी भी मार-पीट से लेकर बिना कई तरह की आम-अधिकार हनन की कार्यवाहियाँ (इसके भी कई उदाहरण हैं, जिनमें से एक मारुति के मज़दूरों के साथ पुलिस द्वारा की गईं कार्यवाहियों की पूरी रिपोर्ट PUDR ने दी हुई है, शोषण का पहिया, जून 2013)।
इन सभी घटनाओं पर सभी लोग काफी शान्त रहते हैं। भले ही आम लोगों के कई आम अधिकारों का भी हर रोज हनन होता रहता हो, भले भी आम लोगों के जनवादी अधिकार तो दूर आम नागरिक अधिकार भी छीन लिये जाते हों, लेकिन सत्ताधारी लोग कभी इसके ऊपर कोई टिप्पणी तक नहीं करते और मीडिया के कानों में कोई आहट तक नहीं होती। इसके अनेक उदाहरण हैं, जैसे भोपाल गैस कांड के शिकार लोगों का न्याय, AFSPA के तहत लोगों के जनवादी अधिकारों का हनन।
विशेष और आम लोगों के लिये बने कानून और अधिकारों के मामले में अमल करने का यह विरोधाभास हमारे सामने वर्तमान पूँजीवादी, अमानवतावादी और गैर-जनवादी संस्क्रति तथा समाज में व्याप्त असमानता को वैध ठहराने की गलत कोशिश का आभास कराता है।

किसी के अधिकारों की सुरक्षा करना किसी भी राष्ट्र की ज़िम्मेदारी है, और यह होना भी चाहिये। लेकिन पूरे बुर्जुआ समाज में न्याय और अधिकारों की यह भावना सिर्फ विशेषाधिकार प्राप्त लोगों तक ही क्यों सीमित रह जाती है, और सरकार, मीडिया या अन्य विशेषाधिकार प्रप्त लोग कभी आम लोगों के मूल अधिकारों तक के हनन का कभी कोई जबाब नहीं माँगते। ना ही कभी कोई नेता इसके विरुद्ध कोई आवाज़ उठाता है। और तो और, आम लोगों के बीच भी यह अहसास पैदा करने की कोशिश की जाती है कि आम लोगों के मूल अधिकारों का भी उतना महत्व नहीं है जितना कि खास लोगों के खाश अधिकारों का, इसलिये उसपर समय जाया करने की आवश्यकता नहीं है।
क्या यही होता है जनता का राज, और ऐसा ही होता है जनतन्त्र?? यह दूरगामी सवाल हैं, जिसपर सोचते रहने के साथ ही नहीं अमल करने की भी आवश्यकता है।

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