Sunday, March 10, 2013

भारत में लगातार चौड़ी होती असमानता की खाई और जनता की बर्बादी की कीमत पर हो रहे विकास पर एक नज़र ! !


अनेक आंकड़ों, तथ्यों और मन्त्रियों-नेताओं के बयानों को सुन और देख कर कोई भी यह सोच सकता है कि भारत काफ़ी तेज गति से विकास के ट्रेक पर आगे बढ़ता चला जा रहा है, और एकता तथा अखण्डता की एक मिसाल प्रस्तुत कर रहा है। लेकिन जब असलियत पर नज़र जाती है तो विकास की सच्ची तस्वीर सामने आ जाती है जो पानी के एक बुलबुले की तरह है जहाँ करोड़ों लोगों के जीवन की बर्बादी की कीमत पर कुछ लोगों को विकास के साथ सारे ऐशों आराम के साधन उपलब्ध कराये जा रहे हैं।
अन्तर्राष्ट्रीय पूँजीवादी-साम्राज्यवादी वैश्वीकरण नीतियों के अनुरूप योजनायें बनाते हुये भारत की सरकार ने पिछले 20 सालों से देश के बाज़ार को वैश्विक बाज़ार के लिये लगातार अधिक खुला बनाया है, और पूँजी के खुले प्रवाह के लिये निवेश में उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों को लागू किया है। इन नीतियों को लागू करने के लिये श्रम कानूनों को लगातार लचीला बनाने के नाम पर मज़दूरों के सभी अधिकारों की एक-एक कर तितांजलि दे दी गई है। इस "विकास" को हासिल करने के लिये सरकार नीतियाँ में फेरबदल करते हुये देशी-विदेशी व्यापारिक संस्थाओं और उद्योगपतियों को कई प्रकार की सब्सिडी मुहैया करवाती है और कई तरह की छूटे देती है। इन नीतियों के लागू करने का परिणाम यह है कि आज नौजवानों में बेरोज़गारी चरम सीमा पर है, मज़दूरों की और ज़्यादा दुर्गति हुई है, जनता के कष्ट और बढ़े हैं, गरीबों को और अधिक गरीबी में धकेल दिया गया है, और पूरे देश के स्तर पर किसानों में आत्महत्यों का सिलसिला आनवतर जारी रहा है।
विकास और उन्नति के नाम पर लागू की जा रहीं इन नीतियों के परिणामस्वरूप स्थिति यह है कि देश के कुल 46 करोड़ मज़दूर आबादी में से 93 प्रतिशत, अर्थात 43 करोड़ मज़दूरों को असंगठित क्षेत्र में धकेल दिया गया है, जहा वे बिना किसी कानूनी सुरक्षा के गुलामों जैसी परिस्थितियों में काम करने के लिये मज़बूर हैं (जबकि यह आंकड़ा 2007 का है)। बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार इस पूरे परिवर्तन के दौरान देश में अमीरों-गरीबों के बीच असमानता दो-गुना बड़ चुकी है। और ऊपर के 10 प्रतिशत लोगों की आय नीचले स्तर पर जीने वाले 10 प्रतिशत लोगों की आय से 12 गुना अधिक है, जो कि बीस साल पहले 6 गुना थी। इसी के साथ शहरी अमीरों और ग्रमीण अमीरों के बीच भी असमानता मौज़ूद है। बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार शहरों में रहने वाले अमीर ग्रामीण अमीरों से 221 प्रतिशत अधिक खर्च करते हैं। विकास के चलते जनता की दुर्गति का सिलसिला यहीं नहीं थमता। एक सरकारी आंकड़े के अनुसार देश में हर एक घण्टे में दो लोग आत्महत्या करते हैं, जिसमें आदिवासी, महिलाओं और दलितों से सम्बन्धित आंकड़े शामिल नहीं हैं, इसके साध ही देश की 15 से 49 साल की महिलाओं की मौत का एक सबसे बड़ा कारण है आत्महत्या। इसी साल मार्च में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार जनता को मिलने वाली स्वास्थ सुविधाओं के मामले में भारत पड़ोसी देशों श्रीलंका, बग्लादेश, पाकिस्तान और नेपाल से भी खराब स्थिति में है। इसके बावज़ूद भारत दुनिया में स्वास्थ सुविधाओं पर सबसे कम खर्च करने वाले देशों में से एक है। (India in healthcare hall of shame, ranked worst peers and neighbours, टाइम्स आफ इण्डिया, Mar 5, 2013)
एक रिपोर्ट के अनुसार भारत की 45 करोड़ जनता गरीबी रेखा के नीचे जी रही है, जिसका अर्थ है कि यह आबादी भुखमरी ही कगार पर बस किसी तरह जिन्दा हैं। इन गरीबों की प्रति दिन की आय 12 रु से भी कम होती है। इतनी आमदनी मे कोई मूलभूत सुविधा तो बहुत दूर की बात है, बल्कि एक व्यक्ति को किसी तरह सिर्फ जीन्दा बने रहने के लिये भी संघर्ष करना पड़ता है, और वह भी तब जब यह मान लिया जाये कि वह व्यक्ति कभी बीमार नहीं पड़ेगा और जानवरों की तरह सभी मौसम बर्दाश्त कर लेगा!
एक तरफ गरीबी लगातार बड़ रही है, वहीं दूसरी ओर समाज के एक छोटे हिस्सें का प्रतिनिधित्व करने वाले उद्योगपतियों, लोकसभा के सदस्यों, न्यायपालिका में काम करने वाले लोगों, नेताओं, सरकारी अधिकारियों और बाबुओं के घरों में पैसों के अम्बार (कानूनी और गैर कानूनी सभी श्रोतों से) लगातार ऊँचे होते जा रहे हैं। आम जनता की इस बर्बादी के बीच दूसरी तरफ भारत "तरक्की" भी कर रहा है! 120 करोड़ आबादी वाले भारत के पूँजीवादी जनतन्त्र में 100 सबसे अमीर लोगों की कुल सम्पत्ति पूरे देश के कुल वार्षिक उत्पादन के एक चौथाई के बराबर है। फोर्ब्स पत्रिका द्वारा जारी की गई दुनिया के 61 देशों में अरबपतियों की संख्या की एक सूची में भारत चौथे नम्बर पर है। भारत के इन अरबपतियों की कुल सम्पत्ति 250 अरब है, जिसकी तुलना में जर्मनी और जापान के अमीर अरबपतियों को गरीब माना जा सकता है। इन अरबपतियों के साथ ही भारत में दो लाख करोड़पति भी हैं जो बड़ी-बड़ी कम्पनियों, बैंकों और शेयर-बाजार को "मैनेज" करने का काम करते हैं।
देश में उपभोग करने वाली एक छोटी आबादी को चकाचौध में डूबाने के लिये और अमेरिका-जापान से लेकर यूरोप तक पूरी दुनिया की पूँजी को मुनाफ़े का बेहतर बाज़ार उपलब्ध करवाने के लिये जनता के कई अधिकारों को छीन लिया गया है। इसके कई उदाहरण आज हमारे सामने हैं कि जगह-जगह शोषण-उत्पीणन के विरुद्ध और अपने जनवादी अधिकारों के लिये होने वाले मज़दूर आन्दोलनों और जन-आन्दोलनों के माध्यम से उठने वाली जनता की आवाज को दबाने के लिये पुलिस-प्रशासन का इस्तेमाल अब खुले रूप में किया जाने लगा है। कश्मीर से लेकर देश के उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में जनता के ऊपर सैन्य शासन के साथ ही अब मज़दूर इलाकों में भी मालिकों के कहने पर पुलिस जब चाहे फ़ासीवादी तरीके से मज़दूरों का दमन करती है और उनमें आतंक फैलाती है। यह सब इसलिये किया जाता है जिससे देश के कुछ अमीरों को जनता की बदहाली और शोषण के बदले में "विकास" की चमक-दमक और सुख-सुविधाओं के उपभोग के लिये एक "सुरक्षित माहौल" दिया जा सके!
इकोनामिक टाइम्स के अनुसार विकास की दौड़ में मध्यवर्ग की एक खाई-अघाई आबादी भी शामिल है, जो 16 करोड़ यानि कुल आबादी का 13.1 प्रतिशत हिस्सा है (इकोनामिक टाइम्स 6/2/2011)। मध्यवर्ग का यह हिस्सा विश्व पूँजीवादी कम्पनियों को अनेक विलासिता के सामानों को बेंचने के लिये एक बड़ा बाज़ार मुहैया कराता है। समाज का यह हिस्सा अमानवीय स्थिति तक माल अन्ध भक्ति का शिकार है, जिसमें टीवी और अखबारों में दिखाये जाने वाले विज्ञापन उन्हें कूपमण्डूक बनाने की कोई कशर नहीं छोड़ते। करोड़ों मेहनत करने वाले लोगों के खून पसीने से पैदा होने वाले सामानों पर ऐश करने वाले समाज के इस हिस्से को देश की 80 प्रतिशत जनता की गरीबी और बर्बादी तथा दमन-उत्पीड़न से कोई खास फर्क नहीं पड़ता, बल्कि यह समाज के दबे कुचले हिस्से को देश की प्रगति में बाधा मानता है। इसी मध्यवर्ग को अपने माल के एक बाज़ार के रूप में देखते हुये अमरीकी और यूरोपीय उद्योगपति बड़ी खुशी के साथ इसकी व्याख्या करते हैं कि यहाँ उनके उत्पादित माल और आटोमोबाइल के लिये एक बड़ा बाज़ार मौज़ूद है।
आगे कुछ और आँकड़ों पर नज़र डालने से असमानता और विकास की भयावह स्थिति और साफ़ हो जायेगी। युनीइटेड नेसन्स डेवलपमेण्ट प्रोग्राम ने मानवीय विकास सूचकांक में भारत को 146 देशों की सूची में 129 वें स्थान पर रखा गया है, जिसमें लिंग भेद के मानक भी शामिल हैं। ह्यूमन डेवलपमेण्ट रिपोर्ट में कहा गया है कि लगभग 30 साल पहले भारत की लोग बेहतर जीवन गुजारते थे। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार पिछले 30 सालों के अन्तराल में गरीबों की संख्या में कोई कमीं नहीं हुई है (इंडिया टुडे, 22-10-11)। भारत के ही सरकारी आंकड़े के अनुसार देश की 77 प्रतिशत जनता (लगभग 84 करोड़ लोग) गरीबी में जी रही है, जो प्रति दिन 20 रूपयों से भी कम पर अपना गुज़ारा करती है। हमारे देश में दुनिया के किसी भी हिस्से से अधिक, 46 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। भारत की एक तिहाई आबादी भूखमरी की शिकार है और यहाँ हर दूसरे बच्चे का वजन सामान्य से कम है और वह कुपोषण का शिकार है। ग्लोबल भूख सूचकांक के आधार पर बनी 88 देशों की सूची में भारत 73वें स्थान पर है जो पिछले साल से 6 स्थान नीचे है। 2012 के मल्टीडायमेसनल गरीबी सूचकांक के अनुशार बिहार, छत्तिशगढ़, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में 42 करोड़ लोग गरीबी के शिकार हैं।
एक संस्था ओ.ई.सी.डी. के अनुसार भारत की प्रगति का नतीजा जनता की बदहाली के रूप मे इस प्रकार है कि आज यहाँ पूरी दुनिया के सबसे अधिर ग़रीब लोग रहते हैं। यही बजह है कि जनता की मेहनत और समाज के संसाधनों को लूट के चलते कुछ अम्बानी जैसे कुछ लोग कई-कई मंजिला मकान बनाकर अपनी अमीरी का प्रदर्शन करने में भी कोई शर्म महसूस नहीं करते।
भारत के पूँजीवादी जनतन्त्र में हो रहे विकास की असली तस्वीर यही है, जहाँ जनता की बर्बादी और मेहनत करने वालों के अधिकारों को छीनकर देश के कुछ मुट्ठी भर उद्योगपतियों, अमीरों, नेताओं, सरकारी नौकरशाहों को आरामतलब जिन्दगी मुहैया कराई जा रही है, और देशी विदेशी पूँजीपतियों को मुनाफ़ा निचोड़ने के लिये खुली छूट दे दी गई है।  
इन परिस्थिति की जानकारी होते हुये कोई संजीदा व्यक्ति सामान्य जीवन जीना स्वीकार नहीं कर सकता। यह समय इन परिस्थितियों पर विचार करने का ही नहीं, बल्कि इनके कारणों को जड़ से समाप्त करने के लिये उठ खड़े होने का है। आज सिर्फ सोचना ही नहीं, बल्कि परिस्थितियों को बदलने के प्रयास भी करने होंगे जहाँ सही मायने में पूरी व्यवस्था पर जनता का नियंत्रण हो जिससे हर मेहनत करने वाले व्यक्ति को उसकी मेहनत का पूरा हक मिल सके।

2 comments:

  1. साथी, "ऊपर के 10 प्रतीशत लोगों की आय नीचे के 10 प्रतीशत लोगों से 12 गुना ज्यादा है" तथ्य गलत प्रतीत हो रहा है...

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    1. साथी,
      आपकी बात सही है, यह तथ्य गलत लगता है, और वास्तव में गलत होना चाहिए है,
      लेकिन जिस श्रोत से लिया गया है उसके अनुसार यही डाटा है,
      देखें "Organization for Economic Cooperation and Development (OECD)" report
      Link :
      http://www.countercurrents.org/peebles220213.htm
      "According to the Organization for Economic Cooperation and Development (OECD) India has the BBCviii report, “the highest number of poor in the world,” with the top 10% earning 12 times that of the bottom 10%, “compared to six times twenty years ago, i.e. inequality under the economic miracle, a nightmare for the 99.9%, is growing and apace"

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