Wednesday, July 25, 2012

मारुति सुजुकी के मानेसर प्लांट में हुई घटना के बाद मज़दूर विरोधी झूठे प्रचार के बीच मज़दूरों के दमन पर एक नज़र।


टीवी पर ख़बरें देखने और अखबार में दी गईं ख़बरें पढ़ने के बाद कोई भी व्यक्ति यह सोच सकता है कि मारुति सुजुकी में मज़दूरो का आतंक छाया रहता है, और पूरे मैनेजमेंट को मज़दूरों ने अपने दबाव मे कर रखा है। टीवी चैनलों और अख़बारों की मुख्य खबरों में यह घोषणायें की जा रही है कि प्लांट बंद होने से मारुति सुजुकी को कितने करोड़ का घाटा हो रहा है, कितने लोगों की गाड़ियों के आर्डर पूरे होने में देरी हो रही है और मज़दूरों ने कितना अमानवीय काम कर डाला है, और न जाने क्या क्या? लेकिन लोकट टीवी पर दिखाई गईं कुछ बातों से और गुड़गांव के कारखानों में काम करने वाले कई लोगों से बातचीत करने के बाद जो सच्चाई सामने आती है वह कुछ लोगों को चौका देने वाली लग सकती है। क्योंकि पूरा धंधेबाज मीडिया जो मालिकों के हित में इस घटना के बाद मज़दूरों को बदनाम करने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहता था, वही मीडिया कभी भी इस क्षेत्र में काम करने वाले इन लाखों मज़दूरों की रोज की जिंदगी में उनपर होने वाले अत्याचारों, उनकी गुलामों जैसी काम की परिस्थितियों और उनकी जानवरों जैसी रहने की स्थितियों के बारे में कभी भी कोई ख़बर लोगों के सामने नहीं पहुँचने देता।
18 जुलाई को मानेसर के मारुति सुजुकी प्लांट में हुई घटना के बाद गुड़गाँव औद्योगिक क्षेत्र के आटोमोबाइल कारखानों में काम की परिस्थितियों के प्रति मैनेजमेंट या श्रम विभाग द्वारा मज़दूरों की कोई मांग न सुनने के कारण मज़दूरों में व्याप्त गुस्सा इस आक्रोश के रूप में इक बार फिर फूट पड़ा। काम के दौरान सुपरवाइज़र द्वारा एक मज़दूर के साथ गाली-गलौज करने के बाद मैनेजमेंट की ओर से कोई कार्यवाही न करने के कारण मज़दूरों अक्रोश से भड़क उठा और  मज़दूरों में पहले से सुलग रहा गुस्सा सामने आ गया जिससे "निपटने" के लिए  मैनेजमेंट अपने भाड़े के गुण्डे (बाउंसर) पहले ही बुला चुका था।  लेकिन जिस प्रकार सभी अख़बारों और टीवी चैनलों में पूरी घटना को मज़दूर विरोधी ढंग से मैनेजमेंट और प्रशासनिक अधिकारियों के बयानों के साथ एकपक्षीय रूप से दिखाया गया है, उसने पूरे पूँजीवादी मीडिया तंत्र के जन-विरोधी चेहरे को फिर से उघाड़ कर सामने रख दिया है।
मज़दूरों का कहना है कि मैनेजमेंट के लगातार टालने के रवैये के कारण मज़दूरों में पहले से काफ़ी गुस्सा था, और उस दिन मज़दूरों और मैनेजमेंट के बीच बहस के दौरान मैनेजमेंट के गुण्डों ने मज़दूरों के साथ मारपीट कर उन्हें बाहर निकालने की कोशिश की और इस पूरी हाथापाई की घटना में के दौरान ही कम्पनी के एचआर डिपार्टमेंट में आग लगी जिसका कारण अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि आग मज़दूरों ने लगाई थी या मैनेजमेंट के गुण्डों ने। मज़दूरों का कहना है कि आग मैनेजमेंट द्वारा बुलाए गये गुण्डों ने लगाई थी। पिछले साल तीन महीने चले पूरे आन्दोलन में जिन मज़दूरों ने शान्तिपूर्ण ढंग से कम्पनी के अन्दर बैठ कर धरना दिया था वही मज़दूर इतने उग्र ढंग सामने आ सकते हैं इसके कारणों की जांच पड़ताल पड़ताल करने की आवश्यकता है। इसी दौरान आफिस में आग में फंस जाने से एक एचआर मैनेजर की झुलस कर जलने से मौत हो गई जिसकी पूरी ज़िम्मेदारी प्रशासन ने मैनेजमेंट के इशारे पर बिना किसी तथ्य के मज़दूरों के सर पर डाल दी और मज़दूरों को अपनी कोई बात कहने का कोई मौका नहीं दिया गया।
इस घटना के बाद मानेसर से गुड़गाँव तक सारे इलाके में घर-घर में जाकर पुलिस ने छापे मारना शुरू कर दिया और अब तक लगभग 100  मज़दूरों को गिरफ्ताकर किया जा चुका है। बाकी 3,000 मज़दूरों की खोज में पूरा प्रशासन ऐसे लगा है जैसे सारे मज़दूर इस देश के नागरिक न होकर खून के प्यासे कोई अपराधी हैं, जबकि एक मैनेजर की आग में जल कर हुई मौत एक आकस्मिक घटना थी जिसके बदले में पुलिस प्रशासन और सारी मीडिया सच्चाई को छुपाते हुए सभी 3,000 मज़दूरों के विरुद्ध इस प्रकार की कार्यवाहियाँ और प्रचार कर रहा है जैसे मज़दूर कोई आतंकवादी हैं। इसी के साथ पूरे पूँजीवादी मीडिया में मैंनेजमेंट के गुण्डों द्वारा मज़दूरों के साथ मारपीट की बात बिल्कुल छुपा दी गई है जिसने पूरे घटनाक्रम में मज़दूरों को ज़बरन उकसाया, यहां तक कि गुण्डे बुलाने की बात का जिक्र भी कहीं नहीं किया जा रहा है और आग लगाने की पूरी जिम्मेदारी मज़दूरों के उपर डाल दी गई है। जबकि अभी तक यह भी स्पष्ट नहीं हुआ है कि आग किसने लगाई थी और कैसे लगी।
इसी के साथ 23 जुलाई को कई जगह ख़बरें आ रही थीं कि पुलिस को इस पूरी घटना के पीछे माओवादियों का हाथ होने का संदेह है। प्रशासन का यह बयान स्पष्ट संकेत करता है कि जहां कहीं भी कोई जन संघर्ष उभर रहे हैं उन्हें कुचलने के लिए माओवाद के नाम का सहारा लेकर जनता का दमन करना वर्तमान व्यवस्था के लिए एक साधन बन चुका है। जहाँ भी जनता पूँजीवादी शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध कोई आवाज उठाती है उसे माओवादी घोषित कर हर प्रकार के दमन उत्पीड़न के हथकंडे राज्य प्रशासन द्वारा खुलेआम अपनाये जाते हैं। आज इस प्रकार की घटनाओं में प्रशासन द्वारा जिस प्रकार खुलेआम जनता-विरोधी भूमिका निभाई जा रही है उससे भारत की पूँजीवादी सत्ता का फ़ासीवादी चरित्र नंगा होकर लगातार सामने आ रहा है।
इस पूरी घटना के दौरान मज़दूरों को कोई मौका दिये बिना सभी मज़दूरों को अपराधी घोषित कर दिया गया। पुलिस सभी 3,000 मज़दूरों की खोज में छापे मार रही है, जबकि एफ.आई.आर. में सिर्फ 500 से 700 मज़दूरों के शामिल होने की बात की गई है। इन 3,000 मज़दूरों की खोज में जिस प्रकार पुलिस प्रशासन द्वारा दमन की कार्यवाहियाँ की जा रही हैं उसका भी कोई जिक्र देश की पूरी पूँजीवादी मीडिया में कहीं नहीं किया जा रहा है। वास्तव में "सच" दिखाने का दावा करने वाले यह पूजीपतियों के पिछलग्गू सच को जनता की नज़रों से छुपाकर पूँजीपतियों के हित में आम जनता में एक दूसरे के विरुद्ध अविश्वास पैदा करने का काम करते हैं।
मैनेजमेंट लगातार मज़दूर विरोधी झूठा प्रचार कर और आसपास के आठ गाँवों में प्लांट शिफ्ट करने की छूठी अफ़वाहें फैलाकर पूरी आबादी को मज़दूरों के ख़िलाफ भड़काने का काम कर रहा है, जबकि सच्चाई यह है कि यह प्लांट इन मज़दूरों द्वारा गुलामों जैसी हालत में की जाने वाली जीतोड़ मेहनत के दम चल रहा है। और जब यही मज़दूर अपनी कोई जायज़ मांग उठाते हैं तो मैनेजमेंट और पूरा प्रशासन मिलकर उनकी आवाज को दबाने के लिए नए-नए हथकंडे अपनाते हैं। मैनेजमेंट के झूठे प्रचार के बाद और मज़दूरों की माँगों और उनकी काम की स्थिति के बारे में कोई जानकारी न रखने वाले गाँव के मकान मालिकों ओर किसानों ने प्लांट में काम करने के लिए अपने यहां से मज़दूर देने के साथ मैनेजमेंट के सहयोग के लिए 22 जुलाई को पंचायत की और मैनेजमेंट का समर्थन किया। लेकिन गाँव के इन लोगों को मज़दूरों की स्थिति के बारे में न तो कोई सही जानकारी है, और न ही इस बीच इस घटना से पहले मज़दूरों ने कोई सामान्य प्रचार इस पूरे क्षेत्र की स्थानीय आबादी और दूसरे कारख़ानों के मज़दूरों के बीच किया, यदि ऐसा किया जाता तो कम्पनी में काम के हालात और वर्तमान समय में मज़दूरों की माँगों की जानकरी से उन्हें पता चलता कि कोई भी कम्पनी स्थानीय मज़दूरों की ज़्यादा संख्या को कभी भर्ती नहीं कर सकती, क्योंकि उनपर दबाब बनाकर जानवरो की तरह काम करवाना सम्भव नहीं होगा। ऐसे स्थिति में ज़रूरी है कि पहले से मज़दूरों द्वारा पूरे क्षेत्र की बस्तियों में और दूसरे कारखानों के मज़दूरों के बीच समर्थन के लिए लगातार प्रचार किया जाता और कम्पनी के अन्दर मैनेजमेंट द्वारा मज़दूरों पर बनाये जा रहे दबाब की सच्चाई सामने लाई जाती तो आसपास के क्षेत्र की पूरी मज़दूर आबादी को उनकी माँगो पर एकजुट कर क्षेत्रीय आबादी के समर्थन में जन आन्दोलन खड़ा करने का प्रयास किया जा सकता था। क्योंकि हर कारख़ानें में काम करने वाले मज़दूरों की स्थिति एक समान है और सभी में भयानक अशंतोष व्याप्त है। लेकिन सिर्फ एक कारखाने के अन्दर मज़दूरों के संघर्ष को मैनेजमेंट और प्रशासन आसानी से दबाने में सफल हो जाता है, और कारखाने के अन्दर मज़दूरों की वास्तविक स्थिति और मैनेजमेंट द्वारा उनके शोषण के लिए की जाने वाली अनेक साजिशें बाहर आम जनता के सामने नहीं आ पातीं और इसका फ़ायदा मैनेजमेंट द्वारा बिकी हुई पूँजीवादी मीडिया का इस्तेमाल कर मज़दूर विरोधी प्रचार करके मज़दूर संघर्षों को कुचलने और उन्हें बदनाम करने के लिए उठाया जाता है। जैसा कि वर्तमान मारुति सुजुकी की घटना में हो रहा है और पिछली कई घटनाओं में बार-बार देखने को मिला है। आज पूरे देश में शोषण की शिकार करोड़ों मज़दूरों की आबादी को पूँजी की एकजुट ताकत के सामने अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने का कार्य छोटे-छोटे संघर्षों के माध्यम से उन्हें एक दूरगामी क्रांतिकारी दिशा के लक्ष्य के लिए व्यापक स्तर पर संगठित किये बिना नहीं किया जा सकता।
मज़दूरों और मैनेजमेंट के बीच मौज़ूद असंतोष के घटनाक्रम पर नज़र डालें तो 2011 में मानेसर के मारुति सुजुकी प्लांट में तीन महीने चले मज़दूरों के संघर्षों के बाद मैनेजमेंट मज़दूरों की यूनियन को मान्यता देने के लिए सहमत तो हो गया था, लोकिन यूनियन के पंजीकृत होने के बाद आज तक मज़दूरों द्वारा उठाई गई कोई भी मांग मैनेजमेंट ने नहीं मानी है। मज़दूरों का कहना है कि उनकी तरफ़ से यूनियन ने वेतन को 10,000 से 15,000 तक बढ़ाने, स्वास्थ्य सुविधायें सही करने, आने-जाने की सही व्यवस्था करने और काम की परिस्थितियाँ सुधारने के लिए एक मांगपत्रक मैनेजमेंट को दिया था जिसे कभी अमल में नहीं लाया गया और मज़दूरों की सभी माँगों को लगातार टाला जा रहा था। इसी के साथ यूनियन के नेताओं और मज़दूरों पर दबाव भी बनाया जा रहा था। मज़दूरों के अनुसार मैनेजमेंट चाहता था कि किसी भी तरह यूनियन मैंनेजमेंट के नियंत्रण में बनी रहे और प्लांट का सारा काम यथास्थिति में चलता रहे। पिछले साल बातचीत के बाद यूनियन के मुख्य नेताओं को दबाब बनाकर और पैसे देकर निकाले जाने से लेकर वर्तमान घटना के बाद मैनेजमेंट द्वारा यूनियन को अमान्य घोषित करने की मंशा जाहिर करने की बात से भी स्पष्ट है कि मैनेजमेंट यूनियन को किसी भी कीमत पर समाप्त करना चाहता है, जिससे मज़दूरों की संगठित एकता को तोड़ा जा सके और मज़दूर आपनी कोई मांग उठाने की स्थिति में न रहें। क्योंकि संगठन के सिवाय मज़दूरों की और कोई ताकत नहीं है जिससे वे पूँजी के हमलों में अपनी इंसान की तरह जीने की मांगों के लिए लड़ सकें और उन्हें प्राप्त कर सकें। इस घटना से कुछ दिन पहले ही एक मज़दूर से हुई बातचीत में उसका कहना था कि मैंनेजमेंट लगाताकर यूनियन के नेताओं पर दबाब बना रहा है और यूनियन के पास किसी बड़ी राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन से जुड़ने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं है।
इस क्षेत्र में मौज़ूद अन्य आटोमोबाइल कारखानों के मज़दूरों से बात करने पर पता चला कि मैनेजमेंट और प्रशासन तंत्र के मज़दूर विरोधी रवैया के कारण दूसरे कारखानों में भी मज़दूरों में अपनी परिस्थितियों के प्रति आक्रोश मौज़ूद है, जिसे दबाने के लिए मैनेजमेंट पहले तो यूनियन बनने नहीं देना चाहते और मज़दूरों को लगातार डराकर काम करवाना चाहते हैं। यदि कोई मज़दूर ठेकेदारों और मैनेजरों द्वारा काम को लेकर बनाये जाने वाले दबाब और हर दिन होने वाले गाली गलौज का ज़रा भी विरोध करते है तो उन्हें अनुशासन तोड़ने का आरोप लगातकर कभी भी नौकरी से निकाला जा सकता है और इस तरह उन्हें डराकर काम करवाया जाता है। और यह स्थिति सभी कारखानों में काम करने वाले मज़दूरों की है। 22 जुलाई को गुड़गाँव के मारुति सुजुकी प्लांट में भी मज़दूर ने 23 जुलाई को टूल डाउन कर मानेसर के मज़दूरों का समर्थन करने की बात की थी, जिससे "निपटने" के लिए पूरे कम्पनी परिसर में पुलिस बल और खूफिया पुलिस बल तैनेत कर दिया गया था।
मारुति सुजुकी के मज़दूरों में सुलग रहे असंतोष के कई कारण उनकी काम की परिस्थितियों का परिणाम हैं जो कुछ तथ्यों को देख कर समझा जा सकता है। प्लांट में इंजन और फाइनल असेंम्बली लाइन 8-8 घंटों की दो शिफ्ट में चलती है और इसमें एक दिन में 2800 गाड़ियाँ बनती हैं। यानि असेंबली लाइन में हर 60 सेकंड में एक गाड़ी पर मज़दूर रोबोट की तरह काम पर लगा रहता है। काम पर आने में, खाने के ब्रेक और चाय के ब्रेक के बाद काम पर वापस जाने में यदि किसी मज़दूर को एक मिनट की भी देर हो जाती है तो उसका आधे दिन का वेतन काट लिया जाता है। सुपरवाइज़र लगातार मज़दूरों पर दबाब बनाने की कोशिश करते हैं, मज़दूर के साथ मारपीट की एक घटना कुछ दिन पहले भी हो चुकी है।  मंदी के असर से रुपये का अंतरराष्ट्रीय मूल्य कम हो जाने से गाड़ी में इस्तेमाल होने वाले कई हिस्सों की कीमत बड़ी है, जिसके कारण इस समय प्लांट में उत्पादन बढ़ाने के लिए असेंम्बली लाईन पर काम करने वाले मज़दूरों पर काफ़ी दबाव है क्योंकि कम्पनी बढ़ी हुई कीमत की भरपाई मज़दूरों से ज़्यादा काम लेकर निकालना चाहती है।
इन परिस्थितियों को देखकर समझा जा सकता है कि मज़दूरों में व्याप्त आक्रोश क्यों बार-बार भड़क उठता है। इस घटना के बाद एक मैनेजर की मौत के लिए जिस प्रकार मज़दूरों को जिम्मेदार बताकर लगातार मज़दूर विरोधी प्रचार किया जा रहा है और जिस प्रकार प्लांट में काम करने वाले सभी 3,000 मज़दूरों को अपराधी घोषित कर दमन के लिए हजारों पुलिस बल तैनात कर दिये गये हैं, ऐसे में पूरी घटना नें गुलामों जैसी हालत में काम करने वाले लाखों मेहनतकश लोगों में व्याप्त असंतोष को बल प्रयोग से कुचलने में लगे पूरे प्रशासन के फासीवादी चेहरे को जनता के सामने लाकर खड़ा कर दिया है। प्रशासन और मैनेजमेंट द्वारा पूरे प्रचारतंत्र द्वारा अधूरे तथ्यों का सहारा लेकर झूठे प्रचार की आड़ में मज़दूरों के विरुद्ध की जा रही यह पूरी कार्यवाही मेहनतकश जनता से निपटने के लिए मालिकों द्वारा प्रयोग में लाई जा रही अनेक कार्यवाहिओं का एक हिस्सा भर है।
आज पूरे देश के करोड़ो मज़दूरों में अपनी स्थिति के विरुद्ध घोर असंतोष व्याप्त है, और गुड़गाँव में मार्च के बाद औरियंट क्राफ्ट में उबला मज़दूरों का गुस्सा, फिर ग्रांड आर्च प्रोजेक्ट के निर्माण साइट पर साथी की मौत से भड़का गुस्सा और अब मारुति सुजुकी के मानेसर प्लांट में हुई इस तीसरी घटना से यह बिल्कुल स्पष्ट है कि गुड़गाँव से लेकर मानेसर तक इस पूरे औद्योगिक क्षेत्र में मज़दूर खुले शोषण के शिकार हैं और उनमे भयानक असंतोष व्याप्त है। लेकिन किसी क्रांतिकारी विकल्प के अभाव में यह असंतोष स्वतः स्फूर्त ढंग से ऐसी घटनाओं के रूप में उबल पड़ता है और मैनेजमेंट व प्रशासन के द्वारा कुचल दिया जाता है। आज इन लाखों मज़दूरों को उनके ऐतिहाशित कार्यभार की याद दिलाने का समय है, कि मज़दूरों को व्यापक क्षेत्रीय स्तरों पर संगठित होकर अपनी माँगों के लिए संघर्ष करते हुए पूरे देश के स्तर पर संगठित होकर आगे बढ़ना होगा।

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