Wednesday, June 6, 2012

गुड़गाँव में कम्पनियों की निरंकुशता के बीच मज़दूरों द्वारा किये जा रहे स्वतः-स्फूर्त आन्दोलनों पर एक नज़र!

गुड़गाँव में हो रही औद्योगिक प्रगति से आज पूरा देश परिचित हैं, और कई लोग सोचते हैं कि भारत न्यूयार्क और यूरोप को टक्कर दे रहा है। बड़ी-बड़ी इमारतें और कारख़ाने देखकर लोगों को लगता है कि गुड़गाँव तेजी से भारत के औद्योगिक विकास का केन्द्र बन रहा है, जहां अनेक कारख़ानों में लाखों मज़दूर काम में लगे हैं। लेकिन इस चमक-दमक के पीछे इन कारख़ानों में काम करने वाले लाखों मज़दूरों की अंधेरी जिंदगी की सच्चाई कभी किसी के सामने नहीं आ पाती, जो पूरी दुनिया में अनेक प्रकार के उपभोक्ता सामान और उपकरणों की आपूर्ति के लिए जानवरों जैसी हालत में काम करने के लिए मज़बूर हैं।
1.
पिछले दिनों ओरियंट क्राफ्ट और ओरियो ग्रांट काँम्प्लेक्स में कम्पनी मैनेजमेण्ट और ठेकेदारों की तानाशाही और गुण्डागर्दी के विरोध में मज़दूरों के उग्र प्रदर्शनों का गुस्सा अभी तक शान्त नहीं हुआ है। इसी बीच गुड़गाँव के उद्योग विहार में स्थित मेडिकल के उपकरण बनाने वाली एक कम्पनी हरसोरिया हेल्थ केयर के सारे मज़दूर 24 अप्रैल 2012 से श्रम कार्यालय के बाहर हड़ताल पर बैठे हैं। आगे बढ़ने से पहले वर्तमान हड़ताल की पृष्ठभूमि और इससे पहले इस कंपनी में हुए मज़दूरों के संघर्षों पर एक नज़र डाल लेते हैं (जो सारी जानकारी मजदूरों से बात करने पर मिली...)। इस कम्पनी में मार्च 2010 में मज़दूरों ने अपनी ट्रेड यूनियन बनाई थी जिसका पंजीकरण मार्च 2011 में हो गया था। इसके कुछ दिन बाद ही कुछ मज़दूर नेताओं पर अनुशासन हीनता का आरोप लगाकर कम्पनी मैनेजमेण्ट द्वारा बर्ख़ास्त कर दिया गया। जिसके विरोध में मज़दूरों नें अप्रैल 2011 में हड़ताल की जिसके दौरान मज़दूरों को पुलिस और गुण्डो द्वारा मार-पीट और डराया धमकाया गया। पिछली हड़ताल की अगुवाई कर रही एच.एम.एस. ने मज़दूरों को समझौता करवाने के बाद कानूनी लड़ाई का रास्ता दिखा कर मज़दूरों के गुस्से को शान्त करके काम पर बापस भेज दिया था। जिसके बाद एक साल से मज़दूर कोर्ट के चक्कर लगा रहे थे।
जनवरी 2012 में कम्पनी मैनेजमेण्ट ने उत्पादन में 35 प्रतिशत की कमी होने की बात कहकर मज़दूरों पर काम धीमा करने, दूसरे मज़दूरों को ओवर टाइम करने से रोकने और काम के दौरान अनुशासन का पालन न करने का आरोप लगाया और सभी मज़दूरों का नवम्बर 2011 से जनवरी 2012 तक 35 प्रतिशत वेतन काट लिया। इसी बीच नवम्बर 2011 में एक मज़दूर को कम्पनी से बर्ख़ास्त कर दिया गया, दिसम्बर 2011 की शुरूवात में दो और स्थाई मज़दूरों को बर्ख़ास्त कर दिया गया, 17 दिसम्बर 2011 को 13 मज़दूरों को निलंबित कर दिया गया। इसके बाद मज़दूरों ने मैनेजमेण्ट के साथ बातचीत की तब भी निलंबित किये गये 12 मज़दूरों को बापस नहीं लिया गया और अप्रैल में फिर से 12 में से 3 मज़दूरों को बर्ख़ास्त कर दिया गया।
2.
इन सभी घटनाओं से परेशान होकर अंत में 24 अप्रैल 2012 को मज़दूरों नें फिर हड़ताल कर दी और कम्पनी के अन्दर ही धरने पर बैठ गये। हड़ताल करने के बाद 25 अप्रैल को कम्पनी ने 21 स्थाई मज़दूरों को निष्कासित कर दिया और 109 मज़दूरों को सस्पेण्ड कर दिया। हड़ताल के बाद 27 अप्रैल को मैनेजमेण्ट मज़दूरों को कम्पनी परिसर से बाहर निकलवाने के लिए कोर्ट से आदेश ले आया और अपने गुण्डों और पुलिस को बुलाकर अन्दर बैठे मज़दूरों के साथ मारपीट की और ज़बरदस्ती कम्पनी से बाहर निकाल दिया। कम्पनी से 50 मीटर दूर बैठने के बाद भी गुण्डों ने पुलिस के सामने ही मज़दूरों के साथ मारपीट की और पुलिस खड़ी देखती रही। इसके बाद सभी मज़दूर 27 अप्रैल से श्रम कार्यालय के बाहर धरने पर बैठे हुए हैं। सभी मज़दूरों को बाहर निकालने के बाद दूसरे दिन से कम्पनी ने कुछ नये मज़दूरों को लाकर काम शुरू करवाने की अफ़वाह फैला दी। पुराने मज़दूरों द्वारा नये मज़दूरों को समझाकर काम पर न जाने देने के बाद प्रबंधन द्वारा लगभग 25 नये मज़दूरों को कम्पनी के अन्दर ही रहने-खाने और काम करने का इंतज़ाम करने की बात भी पता चली है। तब से अब तक लगभग 650 मज़दूर लेबर आफि़स पर धरने पर बैठे हैं, लेकिन अगुवाई कर रही हिन्द मज़दूर सभा के पास आगे की कार्रवाई की कोई योजना नहीं है। मज़दूरों ने बताया कि श्रम अधिकारी और मैनेजमेण्ट उनकी कोई बात सुनने के लिए ही तैयार नहीं हैं।
3.
हरसोरिया कम्पनी की वर्तमान स्थिति को देखें तो गुड़गाँव की इस यूनिट में 2003 से काम शुरू हुआ है और भारत में यह इसकी एकमात्र यूनिट है। यह कम्पनी मुख्य रूप से चिकित्सा के उपकरण बनाती है जिनका निर्यात यूरोप, सिंगापुर और कोरिया में किया जाता है। उत्पादन के लिए आवश्यक कच्चा माल चीन से आता है, जिनको असेंम्बल करने के बाद सिंगापुर और कोरिया में भेज दिया जाता है, जहां न्यूटेक कम्पनी उपकरणों को यूरोप के डेनमार्क, इटली और फ्रांस देशों में भेजती है। वर्तमान समय में कम्पनी में उत्पादन तेज गति से चल रहा था और कम्पनी का सालाना व्यापार लगभग 37 करोड़ रू. है, जिसमें से 650 मज़दूरों को वेतन के रूप में सालाना सिर्फ 12 प्रतिशत (4 करोड़) दिया जाता है। ऐसी स्थिति में स्थाई मज़दूरों की छटनी करने का उद्देश्य उन्हें डरा-धमका कर नियंत्रण में रखना है, जिससे कि ज़्यादा ठेका मज़दूरों को लेकर ज्यादा मुनाफ़ा निचोड़ा जा सके।

मज़दूरों की ट्रेड यूनियन बनने के बाद पिछले दो साल में कम्पनी ने मज़दूरों के अधिकारों में लगातार कई कटौतियाँ की हैं। इस समय कम्पनी में लगभग 250 स्थाई और 400 ठेका मज़दूर काम करते हैं जो ज़्यादातर उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा और बंगाल के रहने वाले हैं। अप्रैल 2011 में कम्पनी में 203 कैजुअल मज़दूर थे जिन्हें सीधे कम्पनी ने काम पर रखा था। बाद में कम्पनी ने 143 कैजुअल मज़दूरों को ठेकेदारों के माध्यम से काम पर ट्रांसफर कर दिया जिनमें से 15 मज़दूर ठेकेदार के साथ प्रतिबंध करके काम पर चले गये लेकिन बचे हुए 128 मज़दूरों को सस्पेण्ड या निष्कासित कर दिया गया था, यह सभी कम्पनी द्वारा की गई इस अवैध कार्यवाही के ख़िलाफ़ कोर्ट में मुकदमा लड़ रहे हैं। ठेका और स्थाई मज़दूरों दोनों का काम समान है, लेकिन पिछले कुछ दिनों से मैनेजमेण्ट लगातार ठेका मज़दूरों को बढ़ा रहा है और स्थाई मज़दूरों को निकालने की कोशिश कर रहा है। स्थाई मज़दूरों का वेतन 8 घण्टे के काम के बदले में 5600 से 6000 रु. और ठेका मज़दूरों का 4000 से 4600 रु. है। सभी ठेका मज़दूरों को ओवर-टाइम का वेतन सिंगल रेट पर दिया जाता है, और स्थाई मज़दूरों से ओवर-टाइम नहीं करवाया जाता। कम्पनी में असेम्बली लाइन पर उपकरणों का निर्माण होता है, सुपरवाइज़रों और ठेकेदारों द्वारा मज़दूरों से लगातार तेज काम करवाने के लिये गाली-गलौज और मारपीट करके दबाव बनाया जाता है। कम्पनी में पुर्जों को जोड़ने का काम हाथों से भी होता है और मशीनों से भी। एक असेम्बली लाइन में 25 मज़दूर काम करते हैं और हर मज़दूर के लिए हर घण्टे लगभग 1000 से अधिक पीस बनाने का टार्गेट निर्धारित है। यदि मज़दूर यह टार्गेट पूरा नहीं कर पाते हैं तो उस दिन का वेतन काट लिया जाता है। मज़दूरों ने बताया कि हर मज़दूर के लिए हर महीने कम से कम एक दिन ऐसा ज़रूर होता है जिस दिन का वेतन काट लिया जाता है। ज़्यादातर स्थाई मज़दूरों को ज़बरदस्ती उन कामों में लगाया जाता है जिसमें उन्हें अनुभव नहीं होता और बार-बार काम बदल दिया जाता है, फ़िर काम धीमा करने या अनुशासनहीनता का आरोप लगाकर निकाल देने की धमकी दी जाती है। एक मज़दूर के अनुसार श्रम विभाग में हुई एक मीटिंग में कम्पनी के प्रबंधक ने श्रम अधिकारी के सामने कहा कि वह एक भी स्थाई मज़दूर को काम पर नहीं रखना चाहता और ना ही कम्पनी में मज़दूरों की यूनियन चाहता है। मैनेजमेण्ट द्वारा रखे गये गुण्डों द्वारा मज़दूरों के साथ गाली-गलौज और मार-पीट की घटनायें रोज़ होती हैं। हर साल सभी मज़दूरों को उनके वेतन का 8.33 प्रतिशत दीवाली बोनस दिया जाता था जो पिछले साल हुई हड़ताल के बाद नहीं दिया गाया। कम्पनी में चार साल से ज़्यादा काम करने वाले मज़दूरों को 1500 रु. का बोनस दिया जाता था लेकिन अब कम्पनी नें उसे बन्द कर दिया है। कभी भी मज़दूरों को समय पर वेतन नहीं दिया जाता है और पिछले साल कम्पनी ने मज़दूरों का पी.एफ. और ए.एस.आई. भी जमा नहीं किया गया था। पहले कम्पनी में दोपहर को खाना दिया जाता था लेकिन अब उसे बंद कर दिया गया है। पहले मज़दूरों को काम के घण्टों से अलग चाय के लिए दो बार 15-15 मिनट का ब्रेक दिया जाता था जो अब नहीं दिया जाता। रहने खाने और यात्रा करने से लेकर दवाइयों तक हर चीज़ में महँगाई लगातार बढ़ रही है लेकिन इसके बावज़ूद सालों से मज़दूरों के वेतन में कोई भी वृद्धि नहीं की गई है, यानि अप्रत्यक्ष रूप से मज़दूरों का वेतन घटा दिया गया है। यह सभी मज़दूर गुड़गाँव की मज़दूर बस्तियों में सौ-सौ वर्ग फिट के कमरों में जानवरों की तरह 4 से 5 लोग एक साथ रहते हैं। ऐसी परिस्थिति में थोड़ा और कमा लेने के लिए यह सभी मज़दूर किसी भी शर्त पर ओवर टाइम करने के लिए भी तैयार रहते हैं।
4.
कम्पनी द्वारा मज़दूरों के सभी अधिकारों में लगातार की जा रही कटौती और उनसे ग़ुलामों जैसी हालत में काम करवाने की यह निरंकुश सच्चाई उस कम्पनी के मज़दूरों के बारे में हैं जिनके बीच एच.एम.एस. पिछले लगभग तीन सालों से काम कर रही है और जहाँ मज़दूरों की एक ट्रेड यूनियन भी पंजीकृत है। कम्पनी में काम करने वाले मज़दूरों के सारे अधिकार लगातार छीने जा रहे है, मज़दूरों में असंतोष लगातार बढ़ रहा है, और एच.एम.एस. जैसी राष्ट्रीय स्तर की ट्रेड यूनियनें इन सारी घटनाओं पर चुप्पी साधे रहती हैं। लेकिन जब मज़दूरों का दबाव ज़्यादा बढ़ जाता है, तब प्रतीकात्मक हड़तालों का सहारा लेकर मज़दूरों के गुस्से को शान्त करने की कोशिश करती हैं। बजाय इसके कि इन आन्दोलनों के माध्यम से जनता के सामने वर्तमान व्यवस्था के मज़दूर और जनता विरोधी चरित्र का राजनीतिक भंडाफोड़ करें और उन्हें व्यापक स्तर पर संगठित करने का प्रयास करें। अब एच.एम.एस. की मज़दूर राजनीति पर एक नज़र डालें तो गुड़गाँव में 20 कम्पनियों में एच.एम.एस. की ट्रेड यूनियनें पंजीकृत हैं, जो कभी हरसोरिया जैसे आन्दोलन तो कभी एक दिन के प्रतीकात्मक विरोध जैसी कुछ कार्यवाहियाँ करके मज़दूरों के गुस्से को शान्त रखने का काम कर रही हैं। एच.एम.एस. द्वारा मज़दूरों के बीच किये गए पिछले कुछ सालों के कार्यों पर नज़र डालने पर इसका चरित्र और भी स्पष्ट हो जाता है, जिनमें ज़्यादातर प्रतीकात्मक कार्यवाहियाँ ही शामिल हैं। (देखें,  http://articles.timesofindia.indiatimes.com/keyword/hind-mazdoor-sabha)
5.
हड़ताल को एक महीने से ज़्यादा समय बीत जाने के बाद भी दूसरे क्षेत्रों के कारख़ानों और मज़दूरों का समर्थन जुटाने का कोई प्रयास न होने से हरसोरिया कम्पनी के आसपास ही मौजूद दूसरे कारख़ानों के मज़दूरों को हड़ताल की कोई जानकारी भी नहीं है। इस कम्पनी में काम करने के लिए ज़्यादातर मज़दूर उद्योग विहार के आसपास ही स्थित सरौल, मौलाहेड़ा और कापसहेड़ा की बस्तियों में रहते हैं, जहाँ लाखों की मज़दूर आबादी मौज़ूद है। यह सभी मज़दूर दूसरे कारख़ानों में भी उन्हीं परिस्थितियों में काम करते हैं जैसा कि हरसोरिया के मज़दूर और ज़्यादातर ठेके पर काम करने वाले मज़दूरों की यह पूरी असंगठित आबादी कम्पनियों में खुले शोषण की शिकार है। यदि इन बस्तियों और दूसरी कम्पनियों के मज़दूरों का समर्थन के लिए आह्वान किया जाता तो इस पूरी आबादी को इसकी मांगों के लिए एकजुट कर दूसरी कम्पनियो में उत्पादन को ठप किया जा सकता था और कम्पनी पर दबाव बनाया जा सकता था। लेकिन ऐसा कोई भी प्रयास न होने के कारण मज़दूर कम्पनी पर कोई दबाव बनाने की स्थिति में नहीं हैं। हड़ताल पर बैठे हरसोरिया के मज़दूरों ने बताया कि एक महीने बाद अभी ट्रेड यूनियन के नेताओं के पास आगे की कोई योजना नहीं है और वे मैनेजमेण्ट से अपनी कोई भी मांग मनवाने के लिए दबाव बनाने की स्थिति में नहीं हैं। दूसरी तरफ़ श्रम अधिकारी, श्रम मंत्री और पुलिस मज़दूरों पर लगातार दबाव बनाये हुए है कि हड़ताल को समाप्त कर दिया जाए और जो मज़दूर निकाल दिये गये हैं उन्हें छोड़कर बाकी मज़दूर वापस काम पर चले जायें, नहीं तो उन्हें ज़बरदस्ती हटा दिया जायेगा। इस बिखराव के बीच 25 मई को धरना स्थल पर सिर्फ 15 से 20 मज़दूर बैठे हुए हैं और अन्य सभी मज़दूर अपने अपने कमरों पर थे या घर जा चुके हैं।
जिस प्रकार कम्पनी, श्रम अधिकारी, प्रशासन और मंत्री मिलकर मज़दूरों को उनकी परिस्थितियों से समझौता करने के लिए डरा-धमका कर दबाव बनाते हैं ऐसे में यह सम्भव नहीं है कि मज़दूर स्वतः-स्फूर्त ढंग अपनी मांगों को मनवाने के लिए सिर्फ एक कम्पनी में ही उत्पादन को रोक कर मैनेजमेण्ट और प्रशासन पर दबाव बना सकते हैं। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर मज़दूरों के प्रतिनिधित्व की बातें करने वाली ट्रेड यूनियनें मज़दूरों को समझौते के इंतजार में रखकर उन्हें थकाकर अंत में कानूनी लड़ाई का रास्ता दिखा देती हैं। और अंत में मज़दूरों के बीच इस प्रकार का भ्रम फैलाया जाता है कि समझौता मज़दूरों और मैनेजमेण्ट दोनो की जीत है। गुड़गाँव में इस प्रकार के आन्दोलनों के कई उदाहरण मौजूद हैं।
5.
जिस प्रकार मज़दूर लगातार संघर्षों के लिए सामने आ रहे हैं उसे देख कर यह समझा जा सकता है कि गुड़गाँव और पूरे देश के मज़दूर कारख़ानों में हो रहे खुले शोषण के साथ समझौता करने के लिए तैयार नहीं हैं। यह पिछले कुछ सालों से मारुति-सुजुकी, होंडा, हरसोरिया, ओरयंट क्राफ्ट जैसी अनेक कम्पनियों में हो रहे आन्दोलनों से स्पष्ट पता चलता है। लेकिन कोई क्रांतिकारी नेतृत्व और सही दिशा न होने के कारण यह सभी आन्दोलन पुलिस और मालिक के गुण्डों द्वारा मज़दूरों के दमन या कानूनी लड़ाई के लिए मज़दूरों द्वारा समझौता कर लेने के साथ समाप्त हो जाते हैं, और फिर मज़दूर सालों कोर्ट के चक्कर लगाते रहते हैं। स्वतः-स्फूर्त ढंग से जगह-जगह हो रहे मज़दूर आन्दोलनों और सड़कों पर फूट पड़ रहे मज़दूरों के गुस्से के बीच इन राष्ट्रीय ट्रेड यूनियनों का काम ऐसा है कि जहां भी कोई औद्योगिक क्षेत्र है, यह ट्रेड यूनियने वहां मज़दूरों के के बीच अपने ठिकाने बना लेती हैं और समय-समय मज़दूरों के गुस्से पर कुछ प्रतीकात्मक आन्दोलनों के छींटे डालकर उन्हें शान्त करती रहती हैं और कम्पनियों द्वारा मज़दूरों से जानवरों जैसी स्थिति में काम करवाने के लिए जमींन तैयार कर देती हैं। दूसरी तरफ़ पूँजीवादी व्यवस्था के बड़े-बड़े उद्योगपति मज़दूरों का खून चूसकर अपना मुनाफ़ा निचोड़ने में लगे रहते हैं और बड़ी-बड़ी राजनीतिक पार्टियों के नेता अपनी राजनीति की फसल काटते रहते हैं।
पूरे देश के 93 प्रतिशत असंगठित मज़दूरों की यह स्थिति किसी एक कम्पनी में या किसी एक क्षेत्र में ही नहीं है, बल्कि पूरे देश के करोड़ों (लगभग 44 करोड़ 2007 में थी) मज़दूरों की स्थिति है। हर मज़दूर को उसके अधिकारों और उसकी परिस्थितियों के बारे में जागरुक करने के लिए बस्तियों में घरों से लेकर कारख़ानों तक व्यापक प्रचार करना होगा और मज़दूरों को उनके क्षेत्रीय पैमाने में संगठित करते हुए राष्ट्रीय स्तर पर एकजुट करने के लिए आगे बढ़ना होगा।

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