Sunday, April 15, 2012

गोर्की के उपन्यास "माँ" (Mohter) से


काम करने वालों के बारे में (मक्सिम गोर्की के उपन्यास "माँ" (Mohter) से),
"हज़ारों लोग ऐसे हैं जो अगर चाहें तो बेहतर ज़िंदगी बिता सकते हैं लेकिन वे जंगलियों जैसी जिंदगी बिताते रहते हैं और उसी में मगन रहते हैं! आज कमाया और खाया, कल फिर कमाया और खाया और इसी तरह ज़िंदगी के दिन बीतते जाते हैं, -- बस कमाना और खाना। इसमें आख़िर इतने मगन रहने की क्या बात है? थोड़े थोड़े समय बाद वे बच्चे पैदा करते रहते हैं, जो कुछ दिन तो उनका जी बहलाते हैं पर थोड़े ही दिन बाद जब वे ज़रूरत से ज्यादा खाने को माँगने लगते हैं तो उनके माँ-बाप गुस्सा होते हैं और उन्हें गाली देते और कोसते हैं: 'अरे कम्बख्त छोकरो, किसी तरह जल्दी से बड़े भी हो जाओ, काम करके कुछ तुम भी तो कमाओ!' वे चाहते तो यही हैं कि अपने बच्चों को पालतू जानवर बना लें मगर बड़े होते ही यह बच्चे अपना पेट पालने के लिए काम करने लगते हैं -- और अपने जीवन को रबर के टुकड़े की तरह खींचते जाते हैंसच्चे इन्सान तो वह होते हैं जो मनुष्य के विचारों को मुक्त करने के लिए अपना जीवन अर्पित कर देते हैं"
एक मज़दूर के शब्द, "क्या हम सिर्फ़ यह सोचते हैं कि हमारा पेट भरा रहे? बिल्कुल नहीं" . . .  "हमें उन लोगों को जो हमारी गर्दन पर सवार हैं और हमारी आँखों पर पट्टियाँ बाँधे हुए हैं यह जता देना चाहिए कि हम सब कुछ देखते हैं? हम न तो बेवक़ूफ़ हैं और न जानवर कि पेट भरने के अलावा और किसी बात की हमें चिन्ता ही न हो। हम इंसानो का सा जीवन बितानी चाहते हैं! हमें यह साबित कर देना चाहिए कि उन्होंने हमारे ऊपर खून पसीना एक करने का जो जीवन थोप रखा है, वह हमें बुद्धि में उनसे बढ़कर होने से रोक नहीं सकता!"
- मक्सिम गोर्की (Maxim Gorky)

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